मुक्ति का घर(आत्मज्ञान की कहानी)


  1. नयी - नयी दुल्हन जब पति घर जाती है , तो पहले  - पहले पूर्णरूपेण जिसका मन ससुराल में लगता नहीं, मन कभी-कभी अचानक नैहर की ओर भी दौड़ ही जाता है, क्योंकि मन और पवन बड़ा चंचल होता है।                                                धीरे- धीरे वे कई बार पति के घर से बाबुल के यहां और बाबुल के यहां से पति घर आती-जाती है और जब यह समझ में आ जाता है कि मुक्ति जो पति घर में पति की सेवा करने पर है, माता - पिता तो जन्म दिये, पाल - पोसकर बड़ा किए। लेकिन मुक्ति हेतु लाडली के सुख शान्ति हेतु ही दूसरे का हाथ पकड़ा दिया। फिर कुछ नीति, धर्म और उपदेश दिए - बेटा ! आज से तुम अपना सर्व स्व अपने पति को ही जान। यही तुम्हारा धर्म है, कर्तव्य है, इसमें तुम्हारा कल्याण है। तब वह नैहर की आशा छोड़ने लगती है। तब तक हर पति की कृपा होती है और बे भी पत्नी के साथ पूर्णतः हास्य केलि करने लगते है। फिर पत्नी का मन नैहर जाने को नहीं होता।        हां, यदि माता - पिता जीवित है तो उनका प्यार, स्नेह स्वाभाविक ही उनकी ओर खींच जाता है। पर जिस दिन माता - पिता चल बसे होते हैं, तब उस दिन से वह दुल्हन पति घर छोड़कर तो और नैहर का नाम स्वप्न में ही लेना पसन्द नहीं करती।                                                                      कुछ मुझे ऐसा लगता है कि इस तरह ही सन्यास लेने वाली की है यह गति।                                                      पहले पहले जब गुरु की शरण में जाता है तो कुछ दिनों तक घर की याद भी कभी-कभार आ ही जाती है, जब वह सोचने लगता है धीरे - धीरे के सर्वस्व मेरा गुरु ही है - इधर काम, क्रोध, मोह, लोभ, भी अपना प्रभाव छोड़ने लगता है। गुरु के भय से और तब गुरु भी अपने शिष्य का भाव पढ़ जाते है तथा उस पर अपनी दृष्टि फेर देते है। फिर और मन नहीं करता घर जाने को।                                                          हां यदि माता-पिता हैं तो कभी - कभार जाने की इच्छा हो जाती है, और गुरु का आदेश लेकर जाता है, जिस तरह दुल्हन अपने पति का आदेश लेकर जाती है , परन्तु अब तो वे अपने पति की ही हो जाती है और अंन्ततोगत्वा मुक्ति को प्राप्त होती है।                                                 ठीक उसी तरह शिष्य भी गुरु की कृपा से परम पद को प्राप्त कर लेता है, उसे ही हम मुक्ति पाना या मोक्ष पाना परम निर्वाण या केवल पद पाने के नाम से जानते हैं। वह शिष्य उस परम निर्वाण पाकर पुनः आगमन के चक्कर में नहीं पड़ता। ईश्वर में विलीन हो जाता है। गुरु की कृपा से ईश्वर को ही जानकर ईश्वर ही हो जाता है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने कहा   -                                                   "  जानत तुम्हहि,तुम्हहि हो ही जाए। "


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