भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, नेता जी सुभाष चंद्र बोस और जापान पर एट मी हमला

*भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और जापान पर ऐटमी हमला*



आज आपको एक कहानी सुनाता हूँ और वह कहानी विश्व के हर हिस्से से जुड़ी हुई है अतः एक एक घटना को बड़े ध्यान से देखना होगा। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम कोई एक दिन की कहानी नहीं था, यह एक लम्बा वैचारिक युद्ध था जो आज भी चल रहा है। लेकिन आज कहानी में बस एटम बम का उदय व उस का जापान पर प्रयोग और उसके भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से क्या रिश्ता था, सिर्फ उसी की कहानी बताना चाहता हूँ।


बात 17 दिसंबर 1938 में जर्मनी से शुरू होती है जब जर्मन वैज्ञानिक ओट्टो हाह्न व सहायक फ्रीट्ज स्ट्रासमैन ने नाभिकीय विखंडन सिंद्धांत से नाभिकीय उर्जा को खोज निकाला तथा जनवरी 1939 में श्रीमती लिजे माईटनर व उनके भतीजे ओट्टो रॉबर्ट फ्रिस्च ने उस को वैज्ञानिक थ्योरी के रुप में संपादित कर दिया। उन दिनों इंगलैंड का दबदबा सारी दुनिया पर कायम था और जब यह नाभिकीय उर्जा की बात इंगलैंड पहुंची तो ...  
बस बस यहीं से दुनिया का ध्यान कहीं और भटका दिया गया। उन दिनों तक यूरोप में छोटे मोटे झगड़े चलते ही रहते थे तथा उसी 1939 में जर्मनी की पोलैंड से झडप चल रही थी। चालाक अंग्रेजों  ने हिटलर को बदनाम करना शुरू कर दिया क्योंकि उनको जर्मन से एटम बम की तकनीकी हासिल जो करनी थी। 


*सन् 1939 से सन् 1945 के दौर को हम द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर के रूप में जानते है, लेकिन वास्तव में यह दौर दुनिया के मानव निर्मित पटाखे (एटम बम) की तकनीक चोरी व उसके परिक्षण का दौर था।* जर्मनी एटम बम बनाने के मुहाने पर खड़ा था और यह बात विश्व में आग की तरह फैल चुकी थी। उस समय विश्व का थानेदार इंगलैंड था क्योंकि उस के कब्जे में विश्व का सबसे बड़ा भूभाग था। दो सो सालों से अधिक तक वह भारतीय उपमहाद्वीप को लूट चुका था तथा भारत की सर्वश्रेष्ठ क्षत्रिय जातियों की वह रेजीमेंट बना चुका था, जोकि इंगलैंड के इशारे पर विश्व में कहीं भी मर मिटने को तैयार थी तथा विश्व मीडिया भी उसकी मुट्ठी में था। 


एक साल के अंदर ही इंगलैंड ने नाभिकीय उर्जा को संपदित करने वाले व अन्य नाभिकीय उर्जा से जुड़े वैज्ञानिकों को साम दाम दंढ भेद से इंगलैंड बुला लिया था तथा  मार्च 1940 में बिर्मिघंम विश्वविद्यालय में एक कांफ्रेंस आयोजित कर ओट्टो रॉबर्ट फ्रीस्च से क्रिटिकल मास व एटम बम से जुडी सारी तकनीकी जानकारी हासिल कर ली थी तथा *एलॉय ट्युब के नाम से वो सारी जानकारी गुप्त रखी।* लेकिन इस लूट का इंगलैंड को भारी खामियाजा भुगतना पड़ा। जर्मन ने इंगलैंड पर 1940 से लेकर 1942 तक ताबड़तोड़ हवाई हमले किए तथा एक प्रकार से इंगलैंड की रीढ की हड्डी ही तोड़ दी थी। 


जब इंगलैंड अपने यहां एटम बम नहीं बना पाया तो 19 अगस्त 1943 को उसने अमेरिका के साथ एक समझौता किया जिस को दुनिया क्यूबेक समझोते के नाम से जानती है। इस समझौते के तहत अमेरिका को एलॉय ट्युब  से जुड़ी सारी जानकारी व दुनिया भर से परमाणु वैज्ञानिक व 200 करोड़ अमेरिकी डॉलर इंगलैंड द्वारा दिए गए व वचन लिया कि इस पटाखे को हम एक दूसरे के खिलाफ प्रयोग नहीं करेंगे, तीसरे पक्ष के खिलाफ भी आपसी सहमति से ही इस का प्रयोग करेंगे। मैनहट्टन में इस सबसे बड़े पटाखे बनाने का कार्य दिन रात चला। फलस्वरूप *16 जुलाई 1945 को सुबह 5.बज कर 29 मिनट पर इस मानव निर्मित सबसे बड़े पटाखे का पहला परमाणु परीक्षण ट्रिटिनी टैस्ट के नाम से मैनहट्टन में किया गया।*


30 अप्रैल 1945 को हिटलर ब्रिटिश, अमेरिकी, फ्रांस व रूस की एलाई सेना के बार बार किये षड्यंत्रों व आक्रमणों से तंग आकर आत्महत्या कर बैठा तथा *8 मई 1945 को जर्मन ने एलाई सेना के समक्ष समर्पण कर दिया।* 8 मई 1945 को इंगलैंड खासतौर पर लंदन की गलियों में जमकर जश्न मनाया गया तथा इंगलैंड ने चैन की सांस ली।


हिटलर की आत्महत्या व जर्मन से एटमी तकनीक हथियाने के बाद अब विश्व युद्ध समाप्त हो गया था। इंगलैंड का ध्यान भारत की ओर गया जहाँ भारत माता के एक सपूत ने 1943 से ही अंग्रेजो का तख्ता पलटना शुरू कर दिया था। उस शेर ने अंडमान निकोबार, मणिपुर, नागालैंड व त्रिपुरा आदि पर आजाद भारत का परचम लहरा कर, कदम कदम बढाए जा गाकर दिल्ली चलो का नारा दे दिया था। *तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दुंगा* का नारा बच्चे बच्चे की जुबान पर चढ़ चुका था। बस दिल्ली अब दूर नहीं थी। इंगलैंड में अब इतनी हिमम्त नहीं बची थी कि वो इस जननायक का मुकाबला कर सकें। अब अंग्रेजो ने क्यूबेक समझौते का सहारा लेकर अमेरिका से जापान को धमकी दिलवाई कि या तो वह नेता जी को आत्मसमर्पण करने को कहे वरना परिणाम भुगतने को तैयार रहे। 


जापान ने यह बात मानने से साफ इंकार कर दिया कि यह तो भारतीयों का ब्रिटेन साम्राज्य के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम है, हम इस में दखल नहीं दे सकते। नेता जी सुभाष चंद्र बोस का तो बहाना था आखिर अमेरिका व इंगलैंड को पानी की तरह पैसा बहा कर तैयार किये गए दुनिया के सबसे बड़े पटाखों का युद्ध के नाम पर परिक्षण भी तो करना था। बस *6 अगस्त 1945 को यूरेनियम व 9 अगस्त 1945 को प्लूटोनियम आधारित एटम बमों का परीक्षण कर लिया गया। 15 अगस्त 1945 को जापान ने हार मान ली* पर फिर भी नेता जी सुभाष को अंग्रेजो के हवाले नहीं किया। *18 अगस्त 1945 को अपुष्ट वायुयान दुर्घटना में नेता जी लापता हो गये।*


भारत व भारतीयता रोती रह गई, 15 अगस्त 1947 को मैनहट्टन प्रोजेक्ट पुरा व सफल घोषित कर दिया गया व 1939 में बर्मा को अलग करने के बाद अधूरी भारत माता के दो टुकड़े कर स्वतंत्र घोषित कर दिया गया। साथ में नाटो सेना बनी व उस ने *सोवियत यूनियन को छोड़* पूरे यूरोप पर अपना नियंत्रण कर लिया व भारतीय उपमहाद्वीप के टुकड़े टुकड़े कर अंग्रेज अपने चाटूकारों को इस महान भूभाग की डोर सोंप कर चले गए। *6 अगस्त व 9 अगस्त 1945 को वे बम जापान पर नहीं भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर पड़े थे।* बस इतनी सी कहानी थी।


काश फिर कोई नेता आए और कहे *तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें इस मकॉले शिक्षा प्रणाली से, इस अंग्रेजो के थोपे संविधान से आजादी दुंगा।*


*✍ कौशलेन्द्र वर्मा।*


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