भोजन
*-: भोजन:-*
हम क्या/कितना खाते हैं, उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हम उसे किस भाव-दशा में खाते हैं। हम आनंदित होकर खाते हैं, या दुखी होकर खाते हैं, उदास अवस्था में खाते हैं, चिंता में खाते हैं, या क्रोध से भरे हुए खाते हैं, या मन मार कर खाते हैं। *अगर हम चिंता में खाते हैं, तो श्रेष्ठतम भोजन के परिणाम भी ज़हरीले (poisonous) होंगे और अगर हम अपने आनंद में खाते हैं, तो जहर का परिणाम भी कमतर होने लगता है। खाना खाते समय हमारी भावदशा—आनंदपूर्ण, प्रसाद पूर्ण हो तो भोजन हमारे शरीर में अमृत समान कार्य करता है। अमूमन परिवार में भोजन के समय ही बात करने, अपने मत/निर्णय/पक्ष बताने के लिए सही समय मानते हैं, जिससे हमारा सारा जीवन ही विषाक्त हो जाता है। हम दिनभर की चिंता में/राजनैतिक पक्ष-विपक्ष/निंदा-चुगली/शिकायत या भोजन में ही कमी निकालने इत्यादि जैसे कार्य करके, न केवल भोजन, अपितु अपने पूरे जीवन की सारी भावदशा को ही रूग्ण किये जा रहे हैं। यदि भोजन बनाने, करने और कराने वालों के मन प्रसन्न हों और वर्तमान समय में रहकर, भोजन उगाने वाले/बनाने वाले/कमाने वाले के प्रति धन्यवाद-भाव से परिपूर्ण होकर अत्यंत प्रार्थनापूर्ण कृत्य हो जाये तो यह ऐसा प्रतीत होगा, जैसे कोई मंदिर में प्रवेश करता है, जैसे कोई प्रार्थना करने बैठता है, जैसे कोई वीणा बजाने बैठता है। तब सारा जीवन ही प्रार्थना/भक्ति/आभार/ध्यान में रूपांतरित होने लगता है।*
*✍ कौशलेन्द्र वर्मा।*
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