केवल भारत में ही जाति व्यवस्था थी

*-: केवल भारत में ही जाति व्यवस्था थी?;-*


 


 


हम भारतीयों के साथ एक समस्या है हम लोग स्वभाव से खोजी नहीं है हम चाहते हैं कि हमें कोई बैठे बैठे तथ्य बताएं और उन तथ्यों को हम घोट कर पी जाए
विगत 100 वर्षों से भारतवर्ष के साथ एक बड़ा ही अमानवीय व्यवहार किया गया है भारत के अंदर जाति व्यवस्था को कलंक बताकर भारत को पिछड़ा हुआ साबित करने की कोशिश की जाती रही है आज भी विदेशी मीडिया में हर हफ्ते कोई ना कोई ऐसा समाचार छपता रहता है जिसमें किसी भारतीय दलित के साथ अमानवीय व्यवहार का वर्णन होता है दोष दिया जाता है भारतीय जाति व्यवस्था को


 


लेकिन क्या 7000 वर्ष पुराना समाज इतना भी सक्षम नहीं था कि वह जाति व्यवस्था जैसी कुरूप चीज को अपने भीतर से निकाल कर सके ?
खैर यह इस लेख का विषय नहीं है इस कारण इस पर नहीं लिख पाऊंगा।
भारतीय समाज के साथ-साथ जाति व्यवस्था पूरे विश्व में फैली हुई थी और इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे पास उपलब्ध है
किंतु केवल भारतीय समाज को ही ही जाति व्यवस्था के कलंक से दूषित किया जाता है
आपने सुना होगा कि जब भी आप किसी सरकारी नौकरी के लिए आवेदन करते हैं तब अक्सर आपको आरक्षण देने के लिए पूछा जाता है कि आप की कास्ट क्या है ?
हम भारतीय कास्ट का अर्थ जाति से लेते हैं और अब यह दोनों एक दूसरे के पर्यायवाची बन चुके हैं लेकिन जाति और कास्ट दोनों में इतना अंतर है जितना जमीन और आसमान में!
सबसे पहले यह देखते हैं कि इन दोनों शब्दों में अंतर है क्यों!
अंग्रेजी वर्णमाला का अक्षर कास्ट पुर्तगाली शब्द कस्टा से लिया गया है इस शब्द का इस्तेमाल स्पेनिश लोग उन लोगों के लिए करते थे जिनको वह जीत लेते थे और उन्हें अपने दास की तरह उपयोग करते थे
17वीं और 18वीं शताब्दी में अमेरिकी और फिलीपींस के जिन इलाकों पर स्पेन का नियंत्रण था उन सभी इलाकों के लोगों को सोसाइडा डी कास्टों कहा जाता था



अगर हिंदी भी कहे तो नीच।
भारतवर्ष में जो जाति शब्द था उसका अर्थ काम से लिया जाता था आज भी जब आपसे कोई पूछता है कि आपकी जाति क्य है तो आप कहते हैं कुम्हार
मतलब आपके पूर्वजों का जो कार्य था उसने आपकी जाति निर्धारित की
लेकिन कास्ट शब्द की उत्पत्ति ही दूसरों को नीचा देखने के उद्देश्य से की गई थी यह एक बड़ा ही स्पष्ट अंतर है लेकिन आश्चर्य है कि हम भारतीय यह स्पष्ट अंतर भी पकड़ नहीं पाते।
अब आते है दूसरे विषय पर,
भारत में क्या सच में जाति व्यवस्था दुनिया की सबसे खराब व्यवस्था थी?
कम से कम अमेरिकन लोग तो यही मानते हैं आपको हैरानी होगी अमेरिका के हाई स्कूल में एक पाठ्यपुस्तक उपयोग की जाती है वर्ल्ड सिविलाइजेशन: ग्लोबल एक्सपीरियंस उसमें भारतीय जाति व्यवस्था का किस प्रकार वर्णन किया गया है वे लिखते हैं
"भारतीय जाति व्यवस्था एक प्रकार का ऐसा सामाजिक संगठन है जो आधुनिक पश्चिमी समाज के सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्धांतों का उल्लंघन करता है"
स्पष्ट है यह लोग भारत को पश्चिमी सिद्धांतों के आधार पर ढालना चाहते हैं और जिन तथ्यों पर भारत उन्हें अलग दिखता है उसको वह या तो तो असामाजिक घोषित कर देते हैं या फिर अमानवीय
और हम भारतीय लोग उनके पालतू जानवर बनकर हर एक बात को स्वीकार करते रहते हैं गोरी चमड़ी का भारतीयों पर ऐसा असर हुआ है कि भारतीयों ने जाति व्यवस्था की यूरोप में बनाई हुई अवधारणा को स्वीकार कर लिया है
लेकिन क्या कभी आपने स्वयं से यह प्रश्न किया?
यूरोप के उच्च नागरिकों के शौचालय से जो लोग मानव मल को खाली करते थे उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाता था?
जो लोग मानव के शवों और और पशुओं के शवों को ठिकाने लगाते थे उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाता था ?
क्या यूरोप के समृद्ध लोग इन लोगों को अपने साथ बैठाते थे?
या फिर इन लोगों के साथ वैवाहिक संबंध बनाए जाते थे ?



स्पष्ट रूप से किसी भी समाज में ऐसे लोग जरूर होते हैं जो मर उठने, मृत देह उठाने का कार्य करते हो। सातवीं शताब्दी में कैथी स्टीवर्ट अपनी पुस्तक में यूरोप में इस तरह समूह का वर्णन कर चुके हैं लेकिन यह तो 300 साल पहले की बात है और आप कह सकते हैं कि भारत में तो जाती व्यवस्था बहुत साल पुरानी हैं, अगर आप ऐसा सोच रहे हैं तो निम्न लाईनें आप के लिए हैं।
अधिकतर यूरोप वासी है अपने आप को रोमन साम्राज्य का वंशज बताते हैं रोमन साम्राज्य में एक प्रथा थी जिसका नाम था उनएयरलिक्काइट। इसमें उन लोगों को बड़ा अपमान का सामना करना होता था जो


चमड़े का काम किया करते थे


जल्लाद थे


मानव मल साफ किया करते थे


या फिर कोई भी ऐसा काम करते थे जो सभ्य मानव नहीं करना चाहेगा


आपको जानकर आश्चर्य होगा जिस रोम साम्राज्य की महानता का वर्णन यूरोप वासी करते हुए नहीं थकते उस रोम साम्राज्य में नियम था की छोटी कास्ट वाले लोगों को कोई भी कंकड़ फेंक कर मार सकता था,
यह लोग सार्वजनिक स्नान नहीं कर सकते थे मतलब कि जिन नदियों और कुओं से आम जनता जल का उपयोग करती थी वहां पर यह लोग नहीं जा सकते थे
यह लोग गुपचुप तरीके से अपनी अंतिम क्रिया करने के लिए बाध्य होते थे
और कब्रिस्तान में इन्हें में इन्हें जगह नहीं दी जाती थी यह शराब भी नहीं पी सकते थे
यदि कोई उच्च कुल का व्यक्ति इनके संपर्क में आया तो उसका बहिष्कार कर दिया जाता था उसकी राजनीतिक, व्यापारिक और आर्थिक अधिकार छीन लिए जाते थे
इस प्रकार यह तय कर दिया गया था कि जो नीच लोग हैं वह नीच ही बने रहे यह व्यवस्था यूरोप में बड़े लंबे समय से चलती रही
आपको एक घटना बताता हूं 1680 के दशक में उतरी जर्मन शहर में एक नीच कुल की औरत प्रसव से तड़प रही थी दाई ने जिसे यूरोप में मिडवाइफ कहा जाता है यह कहकर उस घर में प्रवेश करने से मना कर दिया कि ऐसा करके उसके ऊंचे कुल को ठेस पहुंचेगी, अन्ततः: वह औरत मर गई
बीसवीं शताब्दी तक यूरोप में मानव मल मूत्र हाथ से ही साफ़ किए जाते थे भारत में ऐसे काम करने वालों को भंगी कहा जाता है यूरोप में अनेक गोंगो फार्मर्स कहा जाता था
अब जरा भारत और यूरोप में एक ही प्रकार के काम करने वाले लोगों की स्थिति देखिए, यूरोप में गोग फार्मर्स केवल रात में ही आज आ सकते थे इसलिए इन्हें नाइटमैन कहा जाता था
रात को यह लोग उच्च वर्गों के लोगों के घरों में आते उनके शौचालय को हाथ से साफ करते और शहर से दूर ले जाकर वह मल मूत्र डाल देते,
वे केवल शहर के बाहर ही रह सकते थे और दिन के समय उनका शहर में प्रवेश वर्जित था
यदि किसी नाइटमैन को शहर में शहर में घूमता पाया जाता तो उसके खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही की जाती थी
युरोप में 1920 में एक पुस्तक प्रकाशित की गई प्रिंसिपल ऑफ सोशियोलॉजी इस पुस्तक में यूरोप के अंदर कठोर और सख्त कास्ट व्यवस्था का विस्तृत वर्णन दिया गया है
इसमें लिखा गया है कि हर वह व्यक्ति जो छोटे काम करता था जैसे अनाज काटना, उस अनाज को भंडार गृह तक पहुंचाना
ब्रेड बनाना
कसाई
सूअर पालने वाला
शराब विक्रेता
सार्वजनिक स्नानघर की भटियों में कोयला डालने वाला इन लोगों को पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही काम करने के लिए विवश किया जाता था
अगर यह शाही फरमान भी हासिल कर ले तब भी इनकी कास्ट नहीं बदली जा सकती थी और जो कार्य पिता करते थे वही कार्य करने के लिए इन्हें विवश किया जाता था चर्च भी इस दासता से मुक्त नहीं करा सकता था यूरोपियन लोग रक्त की शुद्धता का ध्यान रखते थे और इस कारण वैवाहिक संबंध केवल उन्हीं लोगों से बनाए जा सकते थे जो लोग उन्हीं के जैसे हो लेकिन,



आपको जानकर हैरानी होगी की भारतीय लोगों ने पहली बार अलग-अलग वर्गों का अनुभव तब किया जब भारत की जनगणना में जाति को आधार बनाया हर किसी व्यक्ति को रोक रोक कर बताया गया कि वह फला जाति का है
भारत में जाति का अर्थ कार्य से लिया जाता था और व्यक्ति का कार्य बदलते ही उसकी जाति बदल जाती थी जैसे संत रविदास जो चमार से ब्राह्मण बन गए थे चोखमेला कनकदास जैसे महान संत भी इसी श्रेणी में आते हैं
आज भी भारतीय समाज इन लोगों का एक ब्राह्मण की भांति आदार करता हैं
मराठा के पेशावा ब्राह्मण थे जो बाद में क्षत्रिय बन गए बन गए
चंद्रगुप्त मौर्य जिन्हें भारत का विशाल सम्राट माना जाता है वह भी छोटी जाति से आते थे
भारत में जातियां कि कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं थी यह कार्य पर आधारित थी आपने देखा होगा कि एक क्षेत्र में कोई उपनाम किसी और जाति को संबोधित करता है और दूसरे क्षेत्र में वही उपनाम किसी अन्य जाति को जैसे लखनऊ क्षेत्र में उपाध्याय वह लोग लगाते हैं जो फसल और बाग बगीचों का कार्य करते हैं दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में उपाध्याय लोग वह लगाते हैं जो एक प्रकार का ब्राह्मण का कार्य करते हैं यह एक स्पष्ट उदाहरण है कि भारत में जातियां किस प्रकार असंतुलित थी जिसका कोई बड़ा प्रभाव भारतवर्ष पर नहीं पड़ता था
इसके उलट यूरोप में धन के आधार पर वर्गों का बंटवारा किया गया था जबकि भारत में सबसे अधिक सम्मानजनक वर्ग ब्राह्मण सबसे गरीब होते थे अधिकतर भूमि, शुद्र, क्षत्रिय और वैश्य के नियंत्रण में थी यूरोप में कोई भी छोटे कुल का व्यक्ति आपके साथ ना तो तो बैठ सकता था और ना ही उस घर में प्रवेश कर सकता था जिस घर में आप रहते हो,
शिक्षा की बात तो छोड़ ही दीजिए
जबकि भारत में 18वीं शताब्दी में कई ऐसे विद्यालय थे जहां पर शुद्र बच्चे ब्राह्मणों से अधिक संख्या में पढ़ते थे
इसका स्पष्ट विवरण द ब्यूटीफुल ट्री नाम की पुस्तक में दिया गया है आप सोचिए अट्ठारह सौ शताब्दी में भी भारत जाति व्यवस्था को कितना स्पष्ट रूप से देखता था इसी समय यूरोप का सिस्टम कितना कठोर बना चुका था



जब भारतीय जनगणना अंग्रेजी द्वारा की गई तब जाति का आधार मुख्य रखा गया और यह तय किया गया कि हर व्यक्ति को यह पता चले कि वह किस जाति का है अंग्रेजों के लिए भारतीय समाज को तोड़ना इससे आसान हो गया था
इसका परिणाम आज सामने है आज हम भारतीय जाति व्यवस्था को बड़ा कठोर बना चुके हैं दलित लोग स्वयं किए गए अत्याचारों की कहानियां बताते घूमते हैं ऊंचे लोग खुद को बहादुर वीर बताते हुए घूमते हैं वे दोनों ही नहीं जानते कि भारतीय समाज में केवल 200 वर्ष पहले उनकी स्थिति किस प्रकार की थी?
भारतीय समाज के साथ एक बहुत बड़ा दुष्कर्म किया गया है जिसके फलस्वरूप ऐसी सोच पैदा हुई है जो हम एक भारतीय के तौर पर एकजुट नहीं करती बल्कि जातियों के तौर पर अलग-अलग बांट देती है यूरोपियन लोग चलाक थे जब उन्हें महसूस हुआ कि इस प्रकार एक निश्चित वर्ग का शोषण करना अब संभव नहीं हो पाएगा तभी वह आधुनिकरण की बीन बजाने लगे भारतीयों को क्योंकि शुरू में ऐसी मानसिकता में डाला गया कि वे कमजोर और पिछड़े हुए हैं और फिर 1947 के बाद भारत में शिक्षा का प्रचार प्रसार इतने गंदे तरीके से किया गया कि भारतीय लोग आधुनिकरण स्वीकार कर ही ना पाए।
इसका नतीजा यह है कि भारत में प्रत्येक वर्ष आंतरिक तौर पर पर या तो धर्म के आधार पर या फिर किसी जाति आधार पर संघर्ष होता रहता है पश्चिमी देश यही चाहते थे इसका बीज उन्होंने 300 साल पहले बोया था और आज हम उसी की फसल काट रहे
हम भारतीय स्वयं को एक अलग ही नजरिए से देखते हैं अचानक से ऐसे लोगों की बाढ़ आ गई है जो स्वयं को को दलित चिंतक बताते हैं और दलितों पर हो रहे अत्याचारों की कहानियां पेश करते हैं मैं आशा करता हूं कि इस लेख के पाठक दलित जरूर होंगे
मेरा आपसे प्रश्न है
क्या आपको कभी किसी मंदिर में प्रवेश देने से रोका गया है?
क्या आपको कभी जाति आधार पर भोजन देने से रोका गया है ?
यह सच है कि आज भारत में जातियों के आधार पर भेदभाव किया जा रहा है पर क्या इसका दोष इसका दोष दोष हम भारतीयों का नहीं है क्या हमने कभी खुद यह पता करने की कोशिश की है कि आखिर यह भेदभाव कहां शुरू हुआ?
*✍ कौशलेन्द्र वर्मा।*


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