सुरभि क्षेत्र में हुआ ऋषि संगम

*-:सुरभि क्षेत्र में हुआ ऋषि संगम:-*


(श्रीराम भक्ति की साधना- हनुमान कथामृत)


अपनी बातें कहते हुए ऋषि विश्वामित्र के मुख पर भाव की रेखाएँ गहरी हो गई। हनुमान ने उनकी ओर देखा और सोचने लगे कि कठोर कर्मों में रत रहने वाले महातपस्वी, अमित तेजस्वी महर्षि विश्वामित्र का अंत:करण पवित्र भावनाओं का सरोवर है, जिसमें भक्ति की ऊर्मियाँ सर्वदा अठखेलियाँ करती रहती हैं। इन चिंतन तरंगों के साथ हनुमान ने विचार किया-शुद्ध और शुभ्र भावनाओं का नैसर्गिक परिणाम तो एक ही है-भक्ति। फिर भला ब्रह्मर्षि विश्वामित्र इसकी सघनता से विलग कैसे रह सकते हैं? वैसे भी ब्रह्मर्षि तो आदिशक्ति के कृपापात्र साधक हैं। भगवती जगन्माता की उन पर अविराम कृपा है। ऐसे में भगवती से उन्हें भक्ति का वरदान मिला हुआ हो तो अचरज क्या है?


भक्ति का स्पर्श स्वभावतः हनुमान को भावविभोर कर देता था। महर्षि की संगति, सान्निध्य और उनके सत्संग में वे स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहे थे। फिर भी अभी कुछ बचा हुआ था। इस तत्त्व को समझते हुए महर्षि विश्वामित्र बोले-"वत्स! यह मिथिला भूमि है। मायामयी की माया, तत्त्वमयी की तत्त्वदृष्टि, उन महाईश्वरी की कृपा यहाँ के कण-कण में बिखरी हुई है। अद्भुत है उनकी लीला, वे ही मोह के बंधनों में डालती हैं, वे ही इन मोह-बंधनों को तोड़कर तत्त्वज्ञान का, जीवनबोध का अजस्र अनुदान देती हैं। इन दिनों यहाँ यह सब कुछ विशेष है, आखिर वे स्वयं शरीर धारण करके जनक भवन में जनकनंदिनी के रूप में मानव लीला कर रही हैं।" महर्षि के स्वर, हनुमान के मन में चुंबकीय आकर्षण उत्पन्न कर रहे थे।


आखिरकार उन्होंने पूछ ही लिया-"ब्रह्मर्षि! आप को तो उनके दर्शनों का सौभाग्य मिलता रहता होगा?" इस जिज्ञासा के उत्तर में ऋषि विश्वामित्र ने गहरी साँस लेते हुए कहा-"मानव जीवन, विधाता का अनुपम वरदान है। इससे श्रेष्ठ, सौभाग्य और कुछ भी नहीं है। यह अनेकानेक संभावनाओं को साकार करने का साधन है। सभी साधनाएँ इसी महासाधन के बलबूते संपन्न होती हैं। फिर भी इस मानव जीवन-मानव शरीर के कुछ नैसर्गिक बंधन हैं, जिनमें बँधना भी पड़ता है और जिन्हें निभाना भी पड़ता है। बस, इन्हीं कारणों से प्रत्यक्ष में तो उनकी झलक ही मिल पाती है यदा-कदा। हाँ! परोक्ष में तो उनका प्रतिक्षण सान्निध्य है। उन्हीं ने तो मेरे इस जीवन की डोर थाम रखी है। उन्हीं के हाथों का तो मैं यंत्र हूँ। प्रत्यक्ष की घटनाओं का आरंभ तो अब होना है। तुम्हारे आगमन के साथ अब अनेकों नए आयाम खुलने हैं।


"पर अभी तो तुम्हें इस मिथिला क्षेत्र की महान विभूतियों से मिलना है, ताकि तुम्हारे आगमन के उद्देश्य पर व्यापक विचार हो सके, विमर्श किया जा सके। फिर उनके भी दर्शन पा लेना, जिनकी लीला के हम सभी सहचर हैं।" इतना कहते हुए महर्षि ने अपने इस अलौकिक आश्रम के केंद्रीय कक्ष में बैठते हुए अपने नेत्र बंद कर लिए। उनके इस तरह नेत्र बंद करते समय वहाँ पर एक अद्भुत आध्यात्मिक ऊर्जा के कुछ विचित्र वलय उभरे। उनके इस तरह उभरने पर वहाँ पर विलक्षण घूर्णन हुआ। फिर कुछ देर उस कक्ष की सूक्ष्मतरंगें आलोड़ित व आंदोलित होती रहीं। हनुमान इन सबके बीच शांत और निरपेक्ष बैठे रहे। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे कि वे इस प्रक्रिया से सर्वथा परिचित थे अथवा फिर सर्वथा अपरिचित। हाँ, उन्होंने कहा कुछ भी नहीं। बस, जस के तस यथावत् बैठे रहे।


थोड़ी देर बाद दृश्य में परिवर्तन हुआ। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने अपनी आँखें खोल दी थीं। उनके मुख पर एक संतोषजनक मुस्कान थी। उन्होंने स्मित अधरों के साथ हनुमान की ओर देखा और बोले-"पुत्र! इस संपूर्ण क्षेत्र में तप करने वाले सभी ऋषि-महर्षियों को मैंने तुम्हारे आगमन की सूचना दे दी है। उन सभी से यह भी निवेदन कर दिया है कि वे यथाशीघ्र सुरभि क्षेत्र में एकत्रित हो जाएँ, ताकि सभी के साथ विचारणा-मंत्रणा हो सके।"महर्षि के इस कथन पर हनुमान ने जिज्ञासापूर्ण नेत्रों से उनकी ओर देखते हुए पूछा-"इस सुरभि क्षेत्र की क्या विशेषता है महर्षि?"


उत्तर में विश्वामित्र ने गंभीर भाव से कहा-"वत्स! वैसे तो यह संपूर्ण क्षेत्र एक वन प्रांत है, परंतु वन का यह हिस्सा मायावी राक्षसों से पूर्णतया सुरक्षित है। वैसे तो इस क्षेत्र के सभी वनों में प्रायः हर जगह मायावी राक्षस फैले हुए हैं। प्रत्येक स्थल पर उनकी दृष्टि है, परंतु यह वन प्रांत उनकी दृष्टि में रहते हुए भी उनकी दृष्टि से ओझल है। यहाँ पर कुछ ऐसी वनस्पतियाँ, वनौषधियाँ और सुगंधित-सुरभित पुष्पों वाले पादप लगे हैं, जिनकी सुरभि से निशाचर दूर रहते हैं। प्रकट में यहाँ कोई ऋषि-महर्षि रहता भी नहीं है। हाँ, अप्रकट में यहाँ यदा-कदा आवागमन होता है। वैसे यहाँ पर दिव्य ऊर्जा का ऐसा चुंबकीय आवरण भी डाला गया है, जो मायावी निशाचरों को भ्रमित करते हुए यहाँ से उन्हें दूर रखता है। अपने सार रूप में प्राकृतिक व आध्यात्मिक अलौकिकता का विचित्र समन्वय, सम्मिश्रण, सम्मिलन और संगम है यह सुरभि क्षेत्र।"


इस क्षेत्र के विषय में जानकर हनुमान को इस क्षेत्र के महर्षियों की प्रतिभा का एक नया परिचय प्राप्त हुआ। अब प्रतीक्षा थी तो केवल ब्रह्मवेला की; क्योंकि इन्हीं क्षणों में वहाँ पर सभी को एकत्रित होना था। इस सारे विवरण के बारे में सुनकर हनुमान विचार करने लगे- धरती की गोद में भी विचित्र आश्चर्य पलते हैं। अब यह सुरभि क्षेत्र ही लो, यह विलक्षण है और दुर्जय राक्षसों से संपूर्ण सुरक्षित भी। रजोगुण, तमोगुण का यहाँ पर प्रवेश निषिद्ध है। जिसमें भी रजोगुण व तमोगुण का लेश मात्र भी है, वह यहाँ पर प्रवेश नहीं पा सकता।


इसीलिए यहाँ पर प्रवेश पाने के लिए या तो परिष्कृत सूक्ष्मशरीर होना चाहिए अथवा फिर केवल रूपांतरण क्रिया से गुजर चुके स्थूलशरीर प्रवेश पा सकते हैं। जिनके जीवन में अभी भी तम व रज की विकृतियाँ हैं, वे इस संपूर्ण क्षेत्र में प्रवेश नहीं पा सकते हैं। उनके लिए यह समूचा क्षेत्र, अगम्य व दुर्गम है। शुद्ध सत्त्व की सिद्धि यहाँ पर प्रवेश पाने की न्यूनतम योग्यता है।


सिद्धाश्रम में ऋषि विश्वामित्र के अलावा केवल कुछ ही ऋषिगण ऐसे थे, जो इस क्षेत्र में प्रवेश की पात्रता रखते थे। स्वयं हनुमान तो गुणमय और गुणातीत, सभी अवस्थाओं के सुयोग्य थे। वे सुगम को अगम व अगम को सुगम बना सकते थे, इसीलिए उनकी गति अबाध, अव्याहत व अतिहत थी। महर्षि विश्वामित्र इस सत्य को जानते थे कि हनुमान अपने जीवन में प्रकृति के तीनों गुणों पर संपूर्ण नियंत्रण करने में सक्षम हैं। वे अपनी आवश्यकता के अनुसार अपने अस्तित्व में किसी भी गुण को घनीभूत कर सकते हैं और किसी को आवश्यकतानुसार अतिन्यून कर सकते हैं। इसीलिए तो वे त्रिगुणमय होते हुए भी त्रिगुणातीत हैं।


ब्रह्मवेला होते ही हनुमान ने ब्रह्मर्षि विश्वामित्र एवं कुछ अन्य ऋषिगणों के साथ सुरभि क्षेत्र के लिए प्रस्थान किया। सिद्धाश्रम से यहाँ तक आने में किसी को भी देर न लगी; क्योंकि सभी मन के साथ गति रखते थे। हनुमान का तो एक नाम मनोजव है। उन्हें भला क्या देर लगती। यहाँ आने पर हनुमान ने एक अपूर्व अनुभव किया। धरती पर इस तरह का अनुभव असंभव था। ऐसा अनुभव तो बस, केवल देवलोक से ऊपर अन्य ऊर्ध्वलोकों में जाने पर ही हुआ करता है। हनुमान को महः जनः तपः आदि लोकों में जाने का अनुभव था। सचमुच अलौकिक, परम दिव्य सृष्टि थी यह।


मिथिला क्षेत्र में तप करने वाले महर्षियों ने अपने तप बल के शुद्ध सतोगुण से यह अलौकिक सृजन कर दिया था। यहाँ आते ही हनुमान समझ गए कि यहाँ पर राक्षस तो दूर देवता भी प्रवेश नहीं पा सकते। आखिरकार देवताओं में भी रजोगुण होता ही है और यहाँ तो तमोगुण ही नहीं, रजोगुण भी प्रतिबंधित है। इसलिए न तो निशाचर न ही देवगण, बस, केवल चेतना के शिखर पर पहुँचे महर्षि ही यहाँ उपस्थित थे। उनकी चेतना से निकलने वाला प्रकाश ही इस संपूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित कर रहा था।


*✍ कौशलेन्द्र वर्मा।*


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