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एक बेरोजगार का दर्द

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डिग्रियां टंगी दीवार सहारे,                   मेरिट का ऐतबार नहीं है,             सजी है अर्थी नौकरियों की,      देश में अब रोज़गार नहीं है।    शमशान हुए बाज़ार यहां सब,     चौपट कारोबार यहां सब,        डॉलर पहुंचा आसमान पर,            रुपया हुआ लाचार यहां सब,               ग्राहक बिन व्यापार नहीं है,                      देश में अब रोज़गार नहीं है।                        चाय से चीनी रूठ गई है,                दाल से रोटी छूट गई है,           साहब खाएं मशरूम की सब्जी,       कमर किसान की टूट गई है,    है खड़ी फसल ख़रीदार नहीं है,  देश में अब रोज़गार नहीं है।   दाम सिलेंडर के दूने हो गए,      कल के हीरो नमूने हो गए,         मेकअप-वेकअप हो गया महंगा,              चाँद से मुखड़े सूने हो गए,                   नारी है पर श्रृंगार नही है,                        देश मे अब रोज़गार नही है।                          साधु-संत व्यापारी हो गए,                     व्यापारी घंटा-धारी हो गए,                 कैद में आंदोलनकारी हो गए,              सरकार से कोई सरोकार नही है,         युवा मगर लाचार नही है     देश

मैं अब अनपढ़ नहीं रहूंगी

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"मैं  अब अनपढ  नहीं  रहूंगी "   *-:मां मैं अनपढ़ नहीं रहुंगी:-* मां    मैं  तुमसे  ह्रदय  से कहूंगी  अब     मैं  अनपढ   नहीं  रहूंगी  अज्ञानता  है  सभी दुखों  की जननी इसके  रहते  अपनों  से  भी न बननी ईर्ष्या -द्वेष   से  हुए ह्रदय  भी छलनी है अनमोल ये जीवन सुन मेरी जननी हर   कर्तव्य    को  मैं   पूरा   करूंगी  मैं      अब     अनपढ     नहीं   रहूंगी  क्या    कहूँ   आज   मैं   जाकर उनको जीते    देश   क्यों  ? दुखाकर  मन को  धुल  गए  पाप   क्या ? धोकर  तन को जला दिल कहे दीवाली  भी निर्धन  को मैं     कब   तक   इस   तरह    जलूंगी  मैं     अनपढ     अब     नहीं      रहूंगी  मां    मुझे   अब   तू   छोड   दे अकेली कितनी सदियों  से तूने मुसीबतें  झेली अपनी   महनत की   तुझे न मिली धेली आज   सपने   में    मैं   जहाज  से खेली मैं   सच में   तुझे   साथ  लेकर   उडूगी मैं     अनपढ     अब      नहीं      रहूंगी  नहीं    है    ये    किस्मत     की    रेखा शिक्षा    नहीं    वहां   गरीबी  को देखा चेतनता  से  हर     दुखों     को    फेंका  कर्म    प्रधान    है    यह    मैने      देखा  मैं      शिक्ष

चीत्कारता हृदय

    *-:चीत्कारता हृदय:-       एक ट्रक के पीछे लिखी ये पंक्ति झकझोर गई.. "हॉर्न धीरे बजाओ मेरा हिन्दूसो रहा है"... उस पर एक कविता इस प्रकार है कि... 'अँग्रेजों' के जुल्म सितम से, फूट फूटकर 'रोया' है.. 'धीरे' हॉर्न बजा रे पगले   'देश' का हिन्दू सोया है। आजादी संग 'चैन' मिला है 'पूरी' नींद से सोने दे...!! जगह मिले वहाँ 'साइड' ले ले... हो 'दुर्घटना' तो होने दे...!! किसे 'बचाने' की चिंता में...  तू इतना जो 'खोया' है...!! 'धीरे' हॉर्न बजा रे पगले ... 'देश' का हिन्दू सोया है....!!! ट्रैफिक के सब 'नियम' पड़े हैं... कब से 'बंद' किताबों में...!! 'जिम्मेदार' सुरक्षा वाले... सारे लगे 'हिसाबों' में...!! तू भी पकड़ा 'सौ' की पत्ती... क्यों 'ईमान' में खोया है..??  धीरे हॉर्न बजा रे पगले... 'देश' का हिन्दू सोया है...!!! 'राजनीति' की इन सड़कों पर... सभी 'हवा' में चलते हैं...!! फुटपाथों पर 'जो' चढ़ जाते... वो 'सलमान&#

आज के नेता

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*-:आज के नेता:-* आज के नेता देशका के दर्द का प्रणेता।  आज के नेता का भक्त  राजनीति पैदा हुआ बेबक्त। आज का तंत्र क्या कहे , लूट का खुला मंत्र  आज की शिक्षा  पढ़े लिखे माँग रहे  एक नौकरी की भिक्षा। आज की देशभक्ति  पिज्जा खा कर लाये शक्ति। आज का युवा  अपनी जड़ों से जुदा हुआ। आने वाली नश्ले  हाईब्रेट की फसलें। आज का किसान गौ सड़क पर  शायद इसीलिए है परेशान। आज के फ़िल्मी सितारे  सबुनमंजन बेच कर  जनता को मूर्ख बना रहे। आज के धर्म के ठेकेदार धर्म के मर्म को सनझे नही धर्म समझाने को बेकरार। बस यही मन का मर्म है  आज धन - गन के बल पर धर्म है। शायद इसीलिए  धर्म का बाजार बहुत गर्म है। अभी वक्त है मान भी जाओ  भाई को भाई से ना लड़वाओ आज जो नही बोल रहा  , दाल रोटी में जो फंसा हुआ है  उसका खून ना खौलाओं। आओ एक संकल्प उठाये  भारत फिर से भव्य बनाएं हम हिंदू रहे हम मुस्लिम रहे अपने घर की चारदीवारी में भारत को विश्व गुरु बनाये दुनिया की फुलवारी में !! *✍ कौशलेंद्र वर्मा।*

एक अनोखा सवाल

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बैल नहीं हूँ मैं, भाई हूँ तेरा, गैर नहीं हूँ मैं, भाई हूँ तेरा,  तेरे कंधे से कंधा मिला कर  काम किया है तेरे लिए, एक दिन नहीं किया सदियों तक किया है, तुझ पर कर्ज है मेरा, तुझ पर कर्ज है मेरा। गैर नहीं हूँ मैं, भाई हूँ तेरा।। माना कि ट्रैक्टर जल्दी काम करता है, लेकिन उस कि किश्त तू रो कर भरता है। डीजल फूंक कर प्रदुषण ना कर, मत पैसे फूंक मुझ से काम ले, मैं ही मर्ज ह़ु तेरे कर्ज का। समझ ये बात  पर्यावरण बचा खुद बच मुझे बचा। परिवार का सदस्य हुं तेरा, गैर नहीं हूँ मैं, भाई हूँ तेरा। चारा काट मुझ से बिजली बचा, ओरों को भी खिला मुझको भी खिला। आटा पीस मुझ से,  मेरे द्वारा पीसा आटा ठंडा होगा, खाओगे तो सेहत अच्छा होगा। तेल निकाल, कोह्लु में जोड़, मैं ह़ु हर काम का तोड़। हिन्दू, मुश्लिम, सिख, ईसाई। मैं तो हुं हर किसान का भाई।। काम ले मुझ से कर्ज चुका मेरा। बैल नहीं हूँ मैं, भाई हूँ तेरा। गैर नहीं हूँ मैं,  भाई हूँ तेरा।। गैर नहीं हूँ मैं......  सभी का एक सवाल है कि बैल का क्या किया जाए?? जवाब नीचे चित्र में ये अनपढ़ किसान दे रहा है। ये बैल 1000 किलो चारा काट देगा, पांच किलो खा भी लेगा तो भी सब शुद्ध

आत्मसात करने योग्य सुंदर कविता

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आत्मसात करने योग्य सुंदर कविता।               *-:" माँ ":-* *लेती नहीं दवाई "माँ",* जोड़े पाई-पाई "माँ"। *दुःख थे पर्वत, राई "माँ",* हारी नहीं लड़ाई "माँ"। *इस दुनियां में सब मैले हैं,* किस दुनियां से आई "माँ"। *दुनिया के सब रिश्ते ठंडे,* गरमागर्म रजाई "माँ" । *जब भी कोई रिश्ता उधड़े,* करती है तुरपाई "माँ" । *बाबू जी तनख़ा लाये बस,* लेकिन बरक़त लाई "माँ"। *बाबूजी थे सख्त मगर ,* माखन और मलाई "माँ"। *बाबूजी के पाँव दबा कर* सब तीरथ हो आई "माँ"। *नाम सभी हैं गुड़ से मीठे*, मां जी, मैया, माई, "माँ" । *सभी साड़ियाँ छीज गई थीं,* मगर नहीं कह पाई  "माँ" । *घर में चूल्हे मत बाँटो रे,* देती रही दुहाई "माँ"। *बाबूजी बीमार पड़े जब,* साथ-साथ मुरझाई "माँ" । *रोती है लेकिन छुप-छुप कर*, बड़े सब्र की जाई "माँ"। *लड़ते-लड़ते, सहते-सहते,* रह गई एक तिहाई "माँ" । *बेटी रहे ससुराल में खुश,* सब ज़ेवर दे आई "माँ"। *"माँ" से

जी हां वो गाय ही थी

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*-:जी हां वो गाय ही थी।:-* ये गाय ही थी जिसने मुगलो को नाको चने चबवा दिए..... ये गाय ही थी जिसने १८५७ मे अंग्रेजो के दमन की शुरुआत कर दी ..... ये गाय ही थी जिसने नेहरु को प्रधानमंत्री बनवाया.....  ये गाय ही थी जिसने इंदिरा गांधी को गद्दी से उतरवा दिया.......  ये गाय ही थी जिसने राजीव गांधी की राजनैतिक नीव हिला दी......... ये गाय ही थी जिसने मोदी को प्रधानमंत्री बनाया.....  ये गाय ही थी जिसने मामा-मुलायम को घर बैठाया और योगी को गद्दी पर बिठाया....  अब ये गाय जिसको केरल मे कांग्रेसियों द्वारा काटा गया ...मुसलमानों द्वारा काटा गया.... वामपंथी द्वारा काटा गया.... अब इन सबके सर्वनाश का कारण भी बनेगी..... अब भी समय है सुधर जाओ  सनातन धर्म की मूल गाय है उसकी हत्या बन्द करो..... नही तो फिर से अब फिर से आजादी का बिगुल फूंक जाएगा । अब हिन्दू जागा तो सम्हलना मुश्किल हो जाएगा ।। गौमाता को राष्ट्रमाता का सम्मान देकर भारत को गौ हत्या के कलंक को मिटा दो । गौचर भूमि मुक्त कर दो । रासायनिक खाद बन्द कर गोबर खाद का मान्यता दे दो ।। आजादी के बाद से अभी तक  गौ हत्या बन्द नही हुई.......... *कौशलेंद्र वर्मा

भक्त का भगवान

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*-:भक्त का भगवान:-* कृपा की न होती जो आदत तुम्हारी तो सूनी ही रहती अदालत तुम्हारी जो दीनो की दिल में जगह तुम न पाते यक्ष तो किस दिल में होती हिफाजत तुम्हारी गरीबों की दुनियां है आबाद तुमसे गरीबों से है बादशाहत तुम्हारी मुलजिम ही होते न तुम होते हाकिम न घर-घर में होती इबादत तुम्हारी तुम्हारी ही उल्फत के दृग बिंदु हैं यह तुम्हें सौंपते हैं अमानत तुम्हारी *✍ कौशलेंद्र वर्मा।*

वीर तुम अड़े रहो, रजाई में पड़े रहो(हास्य युक्त गीत)

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सर्द हवा के झोंकों ने, जीना क्या मुहाल है। (हरीश जी की कविता)

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दे आओ मिलकर देश जलाएं।( हरीश जी की कविता)

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वह

ओढ़ के तिरंगा क्यों पापा आएंगे (कौशलेंद्र वर्मा की कविता)

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मर्मस्पर्शीय कविता एक बालक की जिसके फौजी पिता तिरंगा ओढ़ कर घर आए हैं। -:ओढ़ के तिरंगा क्यों पापा आए हैं?:-  ओढ़ के तिरंगा क्यों पापा आए हैं?  माँ मेरा मन बात यह समझ ना पाए हैं,  ओढ़ के तिरंगा क्यों पापा आए हैं।  पहले पापा मुन्ना मुन्ना कहते आते थे,  टॉफिया खिलौने साथ में भी लाते थे।  गोदी में उठाकर खूब खिलखिलाते थे,  हाथ फेरर सर पर प्यार भी जताते थे।  पर ना जाने आज क्यों वह चुप हो गए,  लगता है कि खूब गहरी नींद सो गए।  नींद से पापा उठो मुन्ना बुलाए हैं,  ओढ़ के तिरंगे को क्यों पापा आए हैं।  फौजी अंकल लोगों की भीड़ घर क्यों आई है,  पापा का सामान साथ में क्यों लाई है।  साथ में क्यों लाई है वह मैडलों के हार,  आंख में आंसू क्यों सबके आते बार-बार।  चाचा मामा दादा दादी चीखते हैं क्यों,  मां मेरी बता वो सर को पीटते हैं क्यों।  गांव क्यों शहीद पापा को बताए हैं,  ओढ़ के तिरंगा क्यों पापा आए हैं।  मां तू क्यों है इतना रोती यह बता मुझे,  होश क्यों हर पल है खोती ये बता मुझे।  माथे का सिंदूर है क्यों है दादी पोछती,  लाल चूड़ी हाथ में क्यों बुआ तोड़ती।  काले मोतियों की माला क्यों उतारी है,  क्या तुझ

मैं वह क्षत्राणी हूं जो (कविता)

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मैं वह क्षत्राणी हूँ जो, तुम्हें तुम्हारे कर्तव्य बताने आई हूँ। मैं मदालसा का मातृत्व लिए, माता की माहिमा दिखलाने आई हूँ। मैं वह क्षत्राणी हूँ जो, तुम्हें फिर से स्वधर्म बतलाने आई हूँ। तुम जिस पीड़ा को भूल चुके, मैं उसे फिर उकसाने आई हूँ। मैं वह क्षत्राणी हूँ, जो तुम्हें फिर से क्षात्र-धर्म सिखलाने आई हूँ।

जेल से जो जमानत पर छूटकर ऐसे, (कविता हरिश्चंद्र जी की)

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कांग्रेस को हरियाणा में पुन: लगा अघात(हरीश चंद जी की कविताएं)

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जो डलहौज़ी न कर पाया, (कविता हरीश चंद जी की)

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सबसे बड़ा भिखारी तो इमरान हो गया (कविता हरीश जी की)

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हे चांद तुम्ही से मिलने खातिर, (कविता हरीश जी की)

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उन शहीदों को याद कर लीजिए (हरीश जी की कविता)

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बदल दिया भूगोल देश का,(हरि जी की कविता)

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